सुल्तानपुर

सुल्तानपुर के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले और शोधार्थी राजेश्वर जी की पुस्तक “सुल्तानपुर : इतिहास की झलक ” को पढ़ना और पास रखना चाहते हैं –राजखन्ना

सुलतानपुर। कुछ भूलने लगे हैं। आंखों की क्षीण रोशनी ने भी समेटा है। पर स्मृति कोष के कपाट खुलते हैं तो आंखें चमकती हैं। चेहरे पर उत्साह की लकीरें खिंचती है और उम्र की झुर्रियां खो जाती हैं। फिर सुल्तानपुर के अतीत  के भूले-बिसरे पन्नों  पर रोशनी बिखेरते चले जाते हैं। हर पहलू को समेटते। कोशल राज के कुशपुर, कुशावती से होते 13 वी सदी में खिलजी के सुलतानपुर पर ठहरते । 1957 की क्रांति में पुराने सुल्तानपुर को नेस्त नाबूत किये जाने। वहां चिराग जलाने पर भी पाबंदी। जिले के अनेक ठिकानों पर आजादी के दीवानों से अंग्रेजी फौजों के युद्ध । उनका अमर बलिदान।  गोमतीं के दक्षिण में मौजूदा नए शहर का बसाव। आजादी की अहिंसक लड़ाई में सुल्तानपुर की हिस्सेदारी। आजादी के बाद के सुल्तानपुर का सफऱ । 82 साल के राजेश्वर सिंह जी ने सुल्तानपुर को मन से जिया है। अतीत को खंगाला है। सबको सहेजा- संजोया है। शब्दों में पिरोया है। वकालत उनकी रोटी का जरिया रही है। साहित्य और पत्रकारिता जीने का। सुल्तानपुर के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले और शोधार्थी उनकी पुस्तक “सुल्तानपुर : इतिहास की  झलक ” को पढ़ना और पास रखना चाहते हैं।
हाल के दिनों में सुल्तानपुर के नाम के बदलाव की मुहिम में लगे लोगों ने सुल्तानपुर पर लिखी उनकी किताब का सहारा लिया है। राजपूताना शौर्य फाउंडेशन के प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल राम नाइक से भेंट में सुल्तानपुर के प्राचीन नाम ” कुशभवनपुर ” के समर्थन में ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ इस पुस्तक को संलग्न किया है। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को इस विषय में लिखे अपने पत्र में पुस्तक  के सम्बन्धित अंशों को संज्ञान में लेने का आग्रह किया है। 1935 में जन्मे राजेश्वर जी 1953 से 62 तक कलकत्ते में पढ़े। वही से एम ए एल एल बी किया। स्टूडेंट फेडरेशन में सक्रिय रहे। वामपंथी आंदोलन से जुड़े। कुछ दिन वहीं डिग्री कालेज में पढ़ाया। विश्वमित्र दैनिक में लिखा। आचार्य विष्णु कांत शास्त्री और कल्याण मल लोढा जैसे गुरुजन की निकटता में सृजन के संस्कार पाए। सुल्तानपुर वापसी में बाबू श्रीनाथ सिंह के जूनियर बने। 1962 में ही “जनमोर्चा” दैनिक से जुड़े। पत्रकारिता के पांच दशकों के अधिक के सक्रिय जुड़ाव में  सुल्तानपुर के राजनीतिक- सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक जीवन की हर धड़कन के वह गवाह हैं। इतिहास में अपनी रुचि के कारण वह वह लगातार अतीत में झांकते रहे। बनते-बदलते सुल्तानपुर के वह हमसफ़र हैं।
इतवार की सुबह युवा पत्रकार साथी संतोष यादव के साथ उनके पास था। चर्चा के केंद्र में सुल्तानपुर था। पुराने चुनाव । गुजरे नेता और उनकी शैली। पिछड़ापन और विकास की कोशिशें ।  जो मिल सका। और जो मिलना चाहिए था पर अब तक नही मिल सका। बाहरी जनप्रतिनिधि और स्थानीयों की सीमाएं। सातवें दशक में क्षत्रिय शिक्षा समिति का वह दिलचस्प चुनाव जिसमे बाबू श्रीनाथ सिंह एक वोट से बाबू राम सहाय सिंह के मुकाबले हारे। फिर उस हार को पीछे छोड़ पूर्वांचल के एक बड़े शिक्षा केन्द्र कमला नेहरु सामाजिक – भौतिक शिक्षा संस्थान की बाबू श्रीनाथ सिंह के अनुज बाबू केदार नाथ सिंह द्वारा स्थापना। उस संस्थान के लिए पहले अमहट में बड़ी जमीन की तलाश। फिर उसका वर्तमान परिसर। जहां कभी पुराना सुल्तानपुर था। उस 138 बीघे के जंगल के सरपत के  शरीफ़ मियां साल में पांच सौ रुपये दियरा के शाही परिवार को देते थे । राजेश्वर जी इस संस्थान के शुरुआती प्रबंधक/सचिव रहे।
विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सक्रियता के बीच राजेश्वर जी लगातार लिखते रहे हैं। बेहतरीन फीचर, खोजपूर्ण रपटों के साथ ही उन्होंने चर्चित उपन्यास  ” पथरीला पथ ” और “अंतहीन पिपासा” लिखे हैं। उनका काव्य संग्रह ” काल की परत ” है। उनके दिल-दिमाग में बसा सुल्तानपुर ( कुशपुरी ) उनकी कविता में भी शब्द श्रृंगार पाता है–
“तेरे कदमों को धोती बहे गोमतीं
    तेरे माथे का सिंदूर ऊषा-किरन
    तेरी शैय्या है श्यामल हरियालियाँ
    मचलते ये नाले करें आचमन
    तेरी गलियों से होकर गए राम थे
    माता सीता ने आँचल पखारा यहां
    चरण रज को छूकर मनुज ने सदा
     नई सभ्यता को संवारा यहां
      तेरी धरती ने स्वागत किया बुद्ध का
      केश कतरे बटोरे-संभाले गए
      लोग पूजन करें अर्चना भी करें
      वंदना भी करें मन लगाए हुए
      ऐसे सिद्धार्थ के सिद्धि की तू धरा
       जो अहिंसा से हिंसा को करता शमन
       केशपुरी को नमन। बार शत शत नमन” ।।

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