लाइफस्टाइल
स्त्रीशक्ति के हिमायती थे डाॅ. भीमराव अम्बेडकर
डॉ. आंबेडकर महिलाओं की उन्नति के प्रबल पक्षधर थे। वे महिलाओं को हक दिलाना चाहते थे। उनका मानना था कि किसी भी समाज का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है कि उसमें महिलाओं की क्या स्थिति है? दुनिया की लगभग आधी आबादी महिलाओं की है, इसलिए जब तक उनका समुचित विकास नहीं होता कोई भी देश चहुंमुखी विकास नहीं कर सकता। डॉ. आंबेडकर का महिलाओं के संगठन में अत्यधिक विश्वास था। उनका कहना था कि यदि महिलाएं एकजुट हो जाएं तो समाज को सुधारने के लिए क्या नहीं कर सकती हैं? वे लोगों से कहा करते थे कि महिलाओं और अपने बच्चों को शिक्षित कीजिए। उन्हें महत्वाकांक्षी बनाइए। उनके दिमाग में यह बात डालिए कि महान बनना उनकी नियति है। महानता केवल संघर्ष और त्याग से ही प्राप्त हो सकती है।
भारत में सवर्ण विचारकों ने जाति और महिला आंदोलन को अलग अलग करके देखा है. ऐसे विचारक महिला समस्या को स्वतंत्र समस्या मानते हैं. जबकि भारत में महिलाओं की समस्या जाति से भी जुड़ी हुई है. महिला समस्या पूरी दुनिया में है, लेकिन जाति पूरी दुनिया में नहीं है. ये भारत की विशिष्टता है।
बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने भारत में जाति और महिला समस्या को जोड़कर देखा. उन्होंने 1916 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में एक पेपर प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था दृ ‘भारत में जातियां – संरचना, उत्पत्ति और विकास’। इस पुस्तक में उन्होंने दिखाया कि जाति की मुख्य विशेषता अपनी जाति के अंदर शादी करना है. कोई अपनी इच्छा से शादी नहीं कर सके, इसलिए प्रेम करने भी रोक लगाई गयी.
बाबा साहेब लिखते हैं कि – यदि किसी पुरुष की मृत्यु हो जाती है. तो उसकी पत्नी विधवा हो जाती है. अब उस जाति में यदि कोई योग्य पार्टनर उसे नहीं मिला, तो वह बाहर सेक्स संबंध बना सकती है. वह बाहर सेक्स संबंध नहीं बना पाए, इसके लिए दो प्रबंध किये गए – सती प्रथा तथा विधवा विवाह पर रोक। सती प्रथा में उस औरत को जिन्दा जलाया जाता है, एवं विधवा के रूप में उसे जीवन भर नर्क की जिंदगी जीनी होती है. अभी सती प्रथा तो प्रचलित नहीं है, लेकिन विधवा महिला को अभी भी सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता।
डॉ. अम्बेडकर का काल दलित महिलाओं की अपनी व समाज की स्वतन्त्रता समानता को लेकर की गई सक्रिय व संघर्षपूर्ण भागीदारी का स्वर्ण काल है। डॅा. अम्बेडकर के समय में चले दलित आन्दोलन में लाखों-लाख शिक्षित-अशिक्षित, घरेलू, गरीब मजदूर किसान दलित शोषित महिलायें जुड़ी। उन्होनें जिस निर्भीकता बेबाकी और उत्साह से दलित आन्दोलन में भागीदारी निभाई वह अभूतपूर्व थी। दलित महिला आन्दोलन और डॉ. अम्बेडकर के साथ महिला आन्दोलन की सुसंगत शुरूआत 1920 से मान सकते है हालांकि सुगबुगाहट सन् 1913 से ही हो गई थी। 1920 में भारतीय बहिष्कृत परिषद की सभा कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहू जी महाराज की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इस सभा में पहली बार दलित महिलाओं ने भाग लेकर अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। पहली बार दलित स्त्रियों ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए इस सभा में सौ. तुलसाबाई बनसोडे और रूकमणि बाई ने घरेलू भाषा में लड़कियों की शिक्षा पर बात रखी उन्होने अपने विचार रखते हुए कहा कि लड़कियों की असली शक्ति शिक्षा ही है। इस परिषद में लड़कियों के लिए अनिवार्य और मुफत शिक्षा का प्रस्ताव पारित किया गया।
डॉ. अम्बेडकर जब मात्र छः वर्ष के थे तब उनकी मां गुजर गई। मां के अभाव में कटे दिन उनके मन में स्त्री जगत के लिए हमेशा-हमेशा के लिए महत्वपूर्ण स्थान बना गए। मां की मृत्यु के बाद बालक भीमराव का पालन-पोषण उनकी अपंग बुआ ने बडे़ मनोयोग से किया। हालाकिं वह शारीरिक अपगंता के चलते घर का कुछ भी काम नहीं कर सकती थी, पर बालक भीमराव को प्यार से गोद में छिपाकर वह उसे भरपूर दुलार तो देती ही थीं। जो थोड़ी बहुत मां की ममता की कमी रही भी तो बालक भीमराव की दोनो बड़ी शादी-शुदा बहने तुलसी और मंजुला ने पूरी की। भीमराव की बुआ शरीर से बौने कद की होने के साथ उनकी पीठ पर बड़ा सा कूबड़ भी था। उस समय ऐसी कन्या के विवाह होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी अतः बालक भीमराव अविवाहित बुआ के प्यार भरे सान्निध्य में पले। शादी-शुदा बहने मंजुला और तुलसी दोनों बारी-बारी से घर आकर गृहस्थी के साथ बालक आनन्दराव और भीमराव का पालन करती थी।
डॉ. अम्बेडकर के स्त्री चिंतन को प्रखर बनाने में सबसे अधिक योगदान अगर किसी का कहा जा सकता है तो वह नाम उनके पिता, बुआ और बहनों के बाद केवल उनकी पत्नी रमाबाई का ही हो सकता है। अक्सर दलित लेखक बाबा साहब का जीवन वर्णन करते समय, उनके संघर्षों को बताते समय, उनको भीमराव से बाबा साहब बनाने वाली रमाबाई के योगदान की चर्चा करना भूल जाते हैं। रमाबाई दलितों के महानायक डॉ. अम्बेडकर नामक विशाल वृक्ष मजबूत जड़ थी, जो आंधी तूफानों से भरे संघर्षपूर्ण दिनों में उन्हें अविचल रूप से थामें मजबूती से खड़ी रही। रमाबाई के मूक बलिदान ने दलित आन्दोलन में रक्त प्रवाह का कार्य किया है।
डॉ. अम्बेडकर के पढ़ने की क्षुधा को अपने खून पसीने से एक कर, रात-दिन कमा कर, एकांकी जीवन जीते हुए, उपले पाथते हुए, रात-दिन घर में खटते हुए वह रमाबाई ही थी जिसने डॉ. अम्बेडकर के अन्दर ज्ञान की कभी न मिटने वाली प्यास को धनाभाव के कारण बुझने नहीं दिया। जिस समय रमाबाई का विवाह हुआ उस समय रमाबाई को पढ़ना नही आता था। डॉ. अम्बेडकर ने उन्हें पढ़ना-लिखना सीखा। रमाबाई अक्सर डॉ. अम्बेडकर द्वारा किए जा रहे कार्यों पर बातचीत करती व अपनी उचित सलाह दिया करती थी। डॉ. अम्बेडकर उन्हें दलित महिलाओं की सभा में अवश्य ले जाया करते थे। 29 जनवरी 1928 मुंबई में रमाबाई को दलित महिला की परिषद् में अध्यक्ष पद के लिए चुना गया और उन्होने अध्यक्ष के पद को बड़ी बखूबी से संभाला। महाड़ सत्याग्रह के बाद सौभाग्य सहस्र बुद्धे और रमाबाई अम्बेडकर ने सवर्ण स्त्रियों की तरह दलित महिलाओं को साड़ी बांधना सिखाया।
वायसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य रहते हुए डॉ. आंबेडकर ने पहली बार महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश (मैटरनल लीव) की व्यवस्था की। संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में संविधान निर्माताओं में उनकी अहम भूमिका थी। संविधान में सभी नागरिकों को बराबर का हक दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14 में यह प्रावधान है कि किसी भी नागरिक के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। आजादी मिलने के साथ ही महिलाओं की स्थिति में सुधार शुरू हुआ। आजाद भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में उन्होंने महिला सशक्तीकरण के लिए कई कदम उठाए। सन् 1951 में उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में पेश किया।
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि सही मायने में प्रजातंत्र तब आएगा जब महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मिलेगा और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिए जाएंगे। उनका दृढ़ विश्वास कि महिलाओं की उन्नति तभी संभव होगी जब उन्हें घर परिवार और समाज में बराबरी का दर्जा मिलेगा। शिक्षा और आर्थिक तरक्की उन्हें सामाजिक बराबरी दिलाने में मदद करेगी।
-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’