*मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के विभिन्न आयाम- संतुलित जीवन का आधार*
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विचार,योगेश गम्भीर
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प्रधानाचार्य
*डीआरवी डीएवी सेंटेनरी पब्लिक स्कूल फिल्लौर पंजाब*
*मेम्बर,एडवाइजरी कमेटी शाइनिंग सोल्स ट्रस्ट*
किसी भी व्यक्ति को समाज में एक अच्छे व्यक्तित्व के साथ अपनी पहचान बनाने के लिए और एक अच्छा जीवन जीने के लिए कई क्षेत्रों में एक सामान्य स्तर से ऊपर का व्यक्ति होना पड़ता है। तभी वह जीवन की विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए सफलतापूर्वक उन से बाहर आ सकता है और एक अच्छा सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन जी सकता है। जिस विषय पर हम बात कर रहे हैं उसे ‘स्तर’, ‘लब्धि’ या कौशल कहा जाता है। जिसे हम इंग्लिश में ‘कोशिएंट’ नाम से जानते हैं। इन सभी स्तरों में बौद्धिक स्तर ऐसा नाम है, जो सबसे पुराना है और जिससे अधिकतर लोग परिचित हैं। एक व्यक्ति अपने विद्यार्थी जीवन में अपनी पढ़ाई-लिखाई में सभी विषयों में कितनी जानकारी रखता है, रुचि रखता है और किस स्तर पर अपनी परीक्षाओं को पास करके अपने करियर को बना पाता है। वह उसके बौद्धिक स्तर पर निर्भर करता है। यह भी जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि इससे व्यक्ति एक सफल जीवन जी सकता है। इसी कड़ी में पिछले कुछ वर्षों में हमने एक नया नाम सुना, जिसे हम भावनात्मक स्तर कह सकते हैं। कोई भी व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में भावनाओं पर किस हद तक नियंत्रण कर पाता है या भावनाओं में कितनी जल्दी बह जाता है या उन परिस्थितियों में किस प्रकार अपने आप को संभाल सकता है, यह उसके भावनात्मक स्तर पर निर्भर करता है। जो व्यक्ति भावनात्मक स्तर पर कमजोर होता है वह जीवन में अक्सर सही निर्णय नहीं ले पाता और गलत निर्णयों के साथ अपने लिए कभी-कभी ऐसी मुश्किल परिस्थितियों उत्पन्न कर लेता है, जिन से बाहर आना उसके लिए कठिन हो सकता है। इसके बाद है सामाजिक स्तर। हम सभी लोग समाज में रहते हैं। परिवार एक छोटी इकाई है। उससे बड़ी इकाई समाज है। पुराने समय में संयुक्त परिवारों के बीच में रहने वाले बच्चे भावनात्मक स्तर पर बहुत मजबूत होते थे, क्योंकि वे बुजुर्गों से लेकर बच्चों के बीच में कई सारे सदस्यों के साथ मिलकर रहते थे। प्रत्येक व्यक्ति से उन्हें कुछ सीखने को मिलता था और गलती करने पर डांट भी पड़ती थी। वे उस डांट को सहन करना भी सीखते थे। आज बच्चे एकल परिवारों में रहते हैं जिनमें कि माता-पिता के अलावा सिर्फ एक या दो बच्चे होते हैं।सभी के विचार एक दूसरे से अलग होते हैं ।गलती होने पर भी बच्चे माता पिता की डांट बर्दाश्त करना नहीं सीख पाते। ऐसी परिस्थितियां उन्हें भावनात्मक रूप से कमज़ोर बनाती हैं। वही बच्चे जब बड़े होकर समाज में आते हैं तो काम के दौरान उन्हें कई प्रकार के दबाव सहने पड़ते हैं। तनाव में रहना पड़ता है, जिसकी उन्हें आदत नहीं होती और वे जल्दी ही हार मान जाते हैं और कभी-कभी खतरनाक फैसले लेकर अपने बहुमूल्य जीवन तक से हाथ धो बैठते हैं। आज इतनी छोटी उम्र के बच्चे तनाव में रहने की बात करने लगे हैं कि उनके मुंह से ऐसे शब्दों को सुनकर हैरानी होती है। मैंने एक बार स्कूल में यूकेजी के बच्चे को जो कि पहली बार स्कूल आया था यह कहते सुना कि वह आज बहुत टेंशन में है क्योंकि उसे पता नहीं उसे किस कक्षा में जाकर बैठना है। यूकेजी कक्षा का बच्चा जो मुश्किल से 5 वर्ष का था उसके मुंह से टेंशन जैसी बात सुननी मुझे हैरान करती है। इसके बाद आती है विपरीत परिस्थितियों में रहने की क्षमता। आजकल का जीवन बेहद तनावपूर्ण, भागदौड़ वाला और एक दूसरे से मुकाबले वाला जीवन है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से जीवन में आगे निकल जाना चाहता है चाहे दूसरे को कितना भी नुकसान क्यों ना हो, चाहे उसकी जान ही क्यों ना चली जाए। बहुत कम लोग हैं जो इस गला काट दौड़ में अपने आप को संभाल पाते हैं और अपना रास्ता बना पाते हैं। कई बार बहुत शिक्षित, सामाजिक जीवन जीने वाले और धनी और प्रसिद्ध व्यक्ति भी विपरीत परिस्थितियों का दबाव सहन नहीं कर पाते और अपना जीवन गॅ॑वा बैठते हैं। पिछले कुछ समय में हमने ऐसे कई उदाहरणों को देखा है। ऐसे लोग दिखने में, व्यवहार में बिल्कुल सामान्य नजर आते हैं, लेकिन उनके मन के भीतर क्या चल रहा है यह कोई नहीं जान पाता। हैरानी उस वक्त होती है जब अचानक से उनके बारे में कोई दुखद समाचार सुनने को मिल जाता है। आज के समय में हर व्यक्ति इतना व्यस्त है कि माता-पिता के पास भी अपने बच्चों के मन की बात सुनने का समय नहीं है। इसका एक कारण तकनीक से बहुत अधिक जुड़ाव भी है। सभी अपने-अपने मोबाइल फोन के साथ व्यस्त हैं। मन की शांति और प्रसन्नता कहीं खो गई है उसे हम भौतिकवादी वस्तुओं में ढूॅ॑ढते हैं जहां से हमें वह नहीं मिलती। तो फिर इस सब का हल क्या है? हल निश्चित रूप से हमारे ही पास है। माता-पिता को अपनी सभी व्यस्तताओं के चलते भी अपने बच्चों के लिए नियमित समय निकालना होगा। उनके साथ संबंध ऐसे बनाने होंगे कि जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में भी बच्चे उनके साथ अपने मन की बात करें। अध्यापक वर्ग का भी उत्तरदायित्व बढ़ता है। वे केवल विषयों की शिक्षा और परीक्षा के अंकों पर ध्यान न देकर विद्यार्थी को जीवन जीने के कौशल भी सिखाएं।अपने साथ उन्हें जोड़ें तभी वे अपने कार्यक्षेत्र के साथ न्याय कर पाएंगे और शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ, समर्थ और सम्पन्न समाज बनेगा।
योगेश गंभीर तय
*प्रधानाचार्य*
*डीआरवी डीएवी सेंटेनरी पब्लिक स्कूल फिल्लौर*।
*मेम्बर,एडवाइजरी कमेटी शाइनिंग सोल्स ट्रस्ट*